बलात्कार के बाद जीना सिर्फ़ मजबूरी....


गुरुवार, 24 जनवरी, 2013  
बलात्कार पीड़िता
बलात्कार पीड़िता के लिए जिंदगी आसान नहीं रह जाती.
मेरा नाम देवीमाया है और मैं पूर्वी नेपाल के एक गांव में रहती हूं. कुछ सालों पहले मैं कुवैत के एक घर में आया का काम करती थी और मेरे पति सउदी अरब में नौकरी करते थे.
कुवैत में एक अनजान आदमी ने मेरे साथ बलात्कार किया. जब मैंने अपने पति को इस बारे में बताया तो उन्होंने मुझे सहानुभूति दी और कहा कि मुझे चिंता करने की ज़रूरत नहीं है क्योंकि जो हुआ उसमें मेरी कोई गलती नहीं थी.
मेरे पति ने ये भी कहा कि वे नेपाल में अपने परिवार से बात करेंगे और उन्हें मनाने की कोशिश करेंगें कि वो इस वारदात को लेकर मुझसे घृणा न करें.
मेरे साथ जो हुआ उसके बाद मैं बहुत असहाय महसूस कर रही थी और घर लौटना चाहती थी.
कुवैत की पुलिस के पास मैं मामला भी दर्ज नहीं करा पाई क्योंकि मेरे साथ बलात्कार करने वाले को मैं जानती भी नहीं थी.

बहिष्कार

अपने मालिक से कई बार मिन्नतें की कि वो मुझे जाने दें, लेकिन उन्होंने मेरी एक न सुनी और कोई मदद नहीं की.
जब उन्हें पता चला कि मेरे पेट में तीन महीने का बच्चा है, तो उन्होंने मुझे वापस जाने के लिए कह दिया.
जब मैं लौटी तो मेरे परिवार वालों ने मेरे ससुराल वालों से बात की और पूछा कि वे मुझे स्वीकार करने के लिए तैयार हैं या नहीं.
जब मेरे पति ने कहा कि वो मेरे बच्चे और मुझे स्वीकार करने के लिए तैयार हैं, तो ससुराल वाले भी मान गए.
लेकिन कुछ दिनों बाद उनका रवैया अचानक बदल गया और उन्होंने मुझे मारना-पीटना शुरू कर दिया.

टूटे नाते

उन्होंने मुझे घर से निकलने का आदेश दिया लेकिन मैंने मना कर दिया.
इसके बाद उन्होंने घर का सारा सामान उठाया और मुझे बताए बिना किसी दूसरे घर में जाकर बस गए.
उसके बाद मेरे पति ने भी फोन करना बंद दिया और मैं ये तक नहीं जानती कि वो कहां रहते हैं.
मैं जानती हूं मेरे पति मुझे अब नहीं चाहते. हमारे आठ साल के बच्चे को भी वे अपने साथ ले गए.
अब मेरे ससुराल वाले मुझे धमकी दे रहे हैं कि वो इस घर को बेच देंगें. ये घर एक झोपड़ी भर है और इसकी छत टूटी हुई है.
इस घर को बचाने के लिए एक गैर-सरकारी संस्था की मदद से अब मैंने कोर्ट में केस दायर किया है.
मेरे पास इस झोंपड़ी की मरम्मत के लिए भी पैसे नहीं है.

समाज के ताने

"समाज के लोग मुझसे और मेरी बेटी से नफरत करते हैं और ये कह कर ताना देते हैं कि मैं अपने साथ एक मुसलमान को ले आई हूं. समाज के इस रवैए की वजह से मुझे आसपास के इलाकों में काम भी नहीं मिल पाता है."
दो वक्त की रोटी भी एक दयालु महिला से आती है, जो मेरे पति की दूर की रिश्तेदार हैं.
कुवैत से आने के कुछ समय बाद मैंने एक बच्ची को जन्म दिया, जो जन्म से विकलांग है.
समाज के लोग मुझसे और मेरी बेटी से नफरत करते हैं और ये कह कर ताना देते हैं कि मैं अपने साथ एक मुसलमान को ले आई हूं. समाज के इस रवैए की वजह से मुझे आसपास के इलाकों में काम भी नहीं मिल पाता है.
मुझे काम ढूंढने के लिए सुबह-सबेरे कई किलोमीटर तक पैदल जाना पड़ता है.
ज़िंदगी बेहद मुश्किल परिस्थितियों में कट रही है, लेकिन जब तक मौत नहीं आती तब तक जीना भी एक मजबूरी है.
(इस रिपोर्ट में पीड़िता का सही नाम बदल कर लिखा गया है. बीबीसी नेपाली सेवा की सीता मादेम्बा से बातचीत पर आधारित)