जिसने दुनिया को रूबरू कराया मलाला से



मलाला की कहानी दुनिया के सामने मिसाल के तौर पर पेश की जाती है.
मलाला की प्रतिभा को सबसे पहले बीबीसी के एक पत्रकार ने पहचाना और उनसे साप्ताहिक कॉलम लिखवाना शुरू किया, यह स्वात घाटी से बाहर की दुनिया से मलाला का पहला संपर्क था.
छह साल पहले यह सिलसिला शुरू हुआ, फिर मलाला पर हमला हुआ और अब मलाला दुनिया का सबसे प्रतिष्ठित सम्मान हासिल कर चुकी हैं.
मलाला की खोज करने वाले पत्रकार अब्दुल हई काकड़ फिलहाल रेडियो फ़्री यूरोप, प्रॉग की पश्तो सेवा मशाल रेडियो के लिए काम करते हैं.

अब्दुल हई काकड़ बता रहे हैं उन्हें मलाला कैसे मिलीं?

ये 2008 की बात है. तब मैं पेशावर में बीबीसी उर्दू सेवा के लिए काम करता था.

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पाकिस्तान का क़बायली इलाक़ा चरमपंथ से जूझ रहा था और वहां धार्मिक नेता मौलाना फ़ज़लुल्लाह शरिया क़ानून लागू करवाने की मुहिम चला रहे थे.
फ़ज़लुल्लाह की शुरुआती पहचान एक मौलवी की थी. आगे चलकर वे ‘गैरइस्लामी’ चीज़ों की मुख़ालिफ़त करने लगे. इन गैरइस्लामी चीज़ों में निजी स्कूल, गीत-संगीत सब शामिल थे.
हालांकि ऐसा नहीं कि तब पाकिस्तानी फ़ौज़ ने कोई कार्रवाई नहीं की. 2007 के आसपास पाकिस्तानी सेना ने अभियान चलाया था पर इसका कोई नतीज़ा नहीं निकला था.
कुछ लोग कहते हैं कि फौज़ की कोशिश बहुत ईमानदार नहीं थी.

तालिबान का नियंत्रण

एक वक़्त तालिबान ने स्वात को पूरी तरह अपने क़ब्ज़े में ले लिया. बस कुछ सरकारी इमारतें छोड़ी गई थीं जिन पर उनका क़ब्ज़ा नहीं था.

हालात लगातार बदतर होते गए और 2008 में तालिबान ने लड़कियों की पढ़ाई पर रोक लगा दी.
मुझे लगा कि जिन पर यह सब गुज़र रहा है, उनकी आवाज़ को सबके सामने लाया जाना चाहिए.
इसके लिए मैंने वरिष्ठ साथियों से बात की और उनसे कहा तालिबान के प्रतिबंध से पीड़ित लोगों की तकलीफ़ें सामने लाने की कोशिश होनी चाहिए.

मलाला से मुलाक़ात

बीबीसी उर्दू ने मुझे इसकी इजाज़त दे दी. मलाला के पिता ज़ियाउद्दीन मेरे परिचित थे. वे स्वात में एक स्कूल चलाते थे. मैंने उनसे बात की और फिर उन्होंने मुझे एक बच्ची का नंबर दिया.

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वह बच्ची पहले बीबीसी के लिए लिखने को राज़ी हो गई, फिर कहा कि उसके मां-बाप तालिबान के डर से मना कर रहे हैं.
मैंने ज़ियाउद्दीन साहब से फिर बात की. उन्होंने थोड़ा सकुचाते हुए कहा कि मेरी बेटी भी तालिबान के प्रतिबंध से दुखी है और वह लिख सकती है.
मैंने कहा कि मुझे कोई एतराज़ नहीं. फिर मलाला से बात हुई और सिलसिला शुरू हो गया.
उन दिनों फ़ैक्स, इंटरनेट जैसी सुविधाएं वहां न के बराबर थीं. मैं फ़ोन पर उनसे डिक्टेशन लेता था और उसे उर्दू में ट्रांसक्राइब करता था.
इस दौरान कई दिक़्क़तें पेश आ रही थीं. मेरा फ़ोन ख़ुफ़िया एजेंसियों की निगरानी में था और मैं उससे मलाला से बात नहीं करता था क्योंकि इससे उसके लिए ख़तरा हो सकता था. मलाला से बात करने के लिए मैं अपनी पत्नी का फोन इस्तेमाल कर रहा था.

'गुल मकई'


मलाला पर कोई मुश्किल न आए, इसलिए मैंने उसे ‘गुल मकई’ का नाम दिया. पश्तो में इसे मक्का का फूल कहते हैं और स्थानीय लोक संगीत में इस नाम का एक किरदार भी है. मलाला को इस बारे में काफ़ी देर से पता चला. उसे अपना यह नया नाम पसंद भी आया.
हालांकि मलाला ने कभी नहीं कहा कि उसका नाम ज़ाहिर न किया जाए.
मलाला की डायरी के लिए मेरी रोज़ उससे बात होती थी. ट्रांसक्रिप्शन का काम मैं उसी वक़्त कर लेता था ताकि वह जैसा बता रही हैं, वह उसी रूप में रहे.
यह डायरी हर हफ़्ते बीबीसी उर्दू में पब्लिश होती थी, वहां से यह बीबीसी साउथ एशिया और रेडियो के लिए जारी होती थी.

दुनिया से रूबरू

यह सिलसिला दो तीन महीने चला. फ़ौज की कार्रवाई के बाद स्वात में पाकिस्तानी नियंत्रण फिर से बहाल हो गया और स्कूल फिर से खुल गए. इसके बाद मलाला के साथ जो कुछ हुआ, वह दुनिया जानती है.

मलाला एक बार अपने पिता के साथ पेशावर आईं थी. तभी मैं उनसे मिला था. मैंने कई दिलचस्प चीज़ें उस बच्ची में नोटिस कीं.
उनकी समझदारी, चीज़ों को देखने का उनका तरीक़ा, स्वात की घटनाओं को लेकर उनकी जानकारी, हर बात में गहराई थी. कम उम्र की उस बच्ची की राजनीतिक समझ किसी को भी कायल कर सकती थी.
ख़ुद पर उनके भरोसे को देखकर यह अंदाज़ा लगाया जा सकता था कि उनके मां-बाप ने उन्हें कितनी आज़ादी दी होगी.